१३९८ हरिद्वार महाकुम्भ नरसंहारमहाकुम्भ, भारत का एक प्रमुख धार्मिक उत्सव है। वार्षिक कुम्भ का आयोजन प्रतिवर्ष किया जाता है लेकिन प्रति १२ वर्षों में आयोजित किए जाने वाले महाकुम्भ को देश में चार विभिन्न स्थानों पर आयोजित किया जाता है। इनमें से एक स्थान है हरिद्वार जहाँ पर जनवरी से अप्रैल २०१० तक महाकुम्भ मेला लगा था। यद्यपि हरिद्वार में लगने वाला यह मेला बहुत लोकप्रिय है और इसमे भागीदारी करने के लिए देश-विदेश से करोड़ो लोग आते हैं[1] लेकिन विश्व-प्रचलित हरिद्वार महाकुम्भ के साथ इतिहास का एक दुखदाई पहलू भी जुड़ा हुआ है। यह दुखदाई पहलू है, सन १३९८ में मुस्लिम शासक तैमूर द्वारा हरिद्वार में एकत्रित हुए श्रद्धालुओं का बड़े पैमाने पर हुआ नरसंहार। वृतांतसन् ११९६ में राजपूतों का प्रभुत्व समाप्त होने के बाद दिल्ली मुस्लिम शासकों के आधिपत्य में आ गई। सन् १२०६ में मोहम्मद गौरी की मृत्यु हुई और उसके राज्यपाल कुतुबुद्दीन ऐबक ने स्वयं को दिल्ली का सुल्तान घोषित कर दिया। तब हरिद्वार क्षेत्र भी उसके राज्य का भाग था। सन् १२१७ में गुलाम वंश के सुल्तान शम्सुद्दीन अल्तमश ने मंडावर समेत शिवालिक क्षेत्र को अपने अधिकार में कर लिया। सन् १२५३ में सुल्तान नसीरुद्दीन पंजाब की पहाडि़यों के राजाओं पर विजय प्राप्त करता हुआ सेना सहित हरिद्वार पहुंचा और कुछ दिन ठहरने के बाद गंगा पार कर बदायूं की ओर चला गया। अजमेरीपुर उत्खनन से प्राप्त सामग्री में इस काल के प्रमाण मिलते हैं। इतिहास से ज्ञात होता है कि तैमूर ने अपने समय में कुम्भ के दौरान बड़े पैमाने पर नरसंहार किया था। गुलाम वंश के पश्चात कुछ काल के लिए यहां की स्थिति स्पष्ट नहीं है। जियाउद्दीन बनी द्वारा लिखित 'तारीख-ए-फिरोज शाही' के अनुसार मोहम्मद तुगलक ने शिवालिक पहाडि़यों तक गंगा-यमुना के दोआब पर अधिकार कर लिया था। तब प्रशासनिक व्यवस्था की दृष्टि से सहारनपुर नगर का निर्माण करवाया गया, जो सन् १३७९ में सुल्तान फिरोजशाह के अधीन आ गया। सन् १३८७ में फिरोजशाह तुगलक दोबारा यहां आया। सहारनपुर गजेटियर में इतिहासकार नेबिल लिखता है कि देहरादून के जंगलों में उसने शिकार किया। तुगलक सुल्तानों के राज्यकाल में खुरासन के अमीर जफर तैमूर ने हिंदुस्तान पर हमला किया और सन् १३९८ में दिल्ली को ध्वस्त कर गंगा के किनारे-किनारे हरिद्वार तक पहुंच गया। तैमूर अपनी आत्मकथा 'तुजक-ए-तैमूर' या 'मलफूजात-ए-तैमूर' में लिखता है, 'जब मलिक शेख पर विजय प्राप्त करने के बाद मुझे मेरे खुफिया लोगों ने समाचार दिया कि यहां से दो कोस की दूरी पर कुटिला घाटी में बड़ी संख्या में हिन्दू लोग अपनी पत्नी एवं बच्चों के साथ एकत्र हुए हैं, उनके साथ बहुत धन-दौलत एवं पशु इत्यादि हैं, तो यह समाचार पाकर मैं तीसरे पहर की नमाज अदा कर अमीर सुलेमान के साथ दर्रा-ए-कुटिला की ओर रवाना हुआ'। तैमूर का इतिहासकार शरीफुद्दीन याजदी अपनी किताब 'जफानामा' में 'दर्रा-ए-कुटिला' को 'दर्रा-ए-कुपिला' लिखता है और गंगाद्वार की स्थिति दर्रा-ए-कुपिला में बताता है। वह कहता है कि गंगाद्वार से निकलकर गंगा कु-पि-ला घाटी में बहती है। पुरातत्ववेत्ता कनिंघम 'कु-पि-ला' को 'कोह-पैरी' अर्थात् 'पहाड़ की पैड़ी' मानकर 'हरि की पैड़ी' का उल्लेख मानते हैं। तैमूर व उसके इतिहासकार शरीफुद्दीन, दोनों ही के बयान से स्पष्ट है कि महाभारत में उल्लेखित कपिल तीर्थ या कपिल स्थान का नाम किसी न किसी रूप से चौदहवीं सदी में प्रचलित था। जहां तक नरसंहार का प्रश्न है शरीफुद्दीन का वर्णन तैमूर के वर्णन की कही तस्वीर है। गंगाद्वार की स्नान महत्ता एवं पितृश्राद्ध संबंधी वर्णन युवान-च्वांग [ह्वेनसांग] एवं महमूद के इतिहासकार अतवी के वर्णन के ही अनुरूप है। इस वर्णन से स्पष्ट है कि तैमूर स्नान पूर्व वैशाखी पर हरिद्वार आया था। नरसंहार के साथ-साथ उसने तत्कालीन नगर मायापुर में बरबादी मचा दी थी। बारह वर्ष के अंतराल पर संपन्न होने वाले कुम्भ पर्व की गणना के अनुसार तैमूर द्वारा किया गया यह नरसंहार आज से ६०० वर्ष पूर्व सन् १३९८ में घटित हुआ। यह कुंभ पर्व का ही समय था। सन्दर्भ
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